बस्तर दशहरा: 600 साल पुरानी और अनोखी है ये रस्म, राजा, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव आते हैं इसे निभाने

जगदलपुर : मावली परघाव यानी दो देवियों के मिलन की रस्म बस्तर दशहरा पर्व की एक महत्वपूर्ण रस्म है. विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व की महत्वपूर्ण मावली परघाव की रस्म को दंतेश्वरी मंदिर के प्रांगण में देर रात को पूरा किया गया. बस्तर के राजकुमार और बस्तरवासियों ने मिलकर ये रस्म धूमधाम से मनाई. परंपरानुसार मावली परघाव की रस्म में शक्तिपीठ दंतेवाड़ा से मावली देवी की क्षत्र और डोली को जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर में लाया जाता है.  बस्तर के राजकुमार और बस्तरवासी देवी की क्षत्र और डोली का स्वागत करते हैं. हर साल की तरह इस साल भी यह रस्म धूमधाम से मनाई गई. नवरात्रि के नवमी में को मनाए जाने वाले इस रस्म को देखने बड़ी संख्या में लोग आते हैं.

राजकुमार ने किया स्वागत
दंतेवाडा से पहुंची माता की डोली और क्षत्र का बस्तर के राजकुमार कमलचंद भंजदेव ने भारी आतिशबाजी और फूलों से भव्य स्वागत किया. राजकुमार बस्तर ने बताया कि 600 साल से पहले बस्तर रियासत काल से इस रस्म को धूमधाम से मनाया जाता है. बस्तर के महाराजा रूद्रप्रताप सिंह ने माई के डोली का भव्य स्वागत किया जाता था.
इतिहासकारों के मुताबिक, नवमीं के दिन दंतेवाडा से आई मावली देवी की डोली का स्वागत करने राजा, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव राजमहल से मंदिर के प्रांगण तक आते हैं. उनकी अगवानी और पूजा अर्चना के बाद देवी की डोली को कंधों पर उठाकर राजमहल स्थित देवी दंतेश्वरी के मंदिर में लाकर रखा जाता है. दशहरे के समापन पर इनकी विदाई होती है.

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